अजीब बात है, भारत में इन्द्राणी मुखर्जी मामले को मीडिया इतनी गंभीरता से लेता है और गीता प्रेस पर ताले लग गयें हैं, इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को ना तव”ाो दी गई ना ही स्पेस। करीब तीन दशक बाद एक बार फिर वेतन विसंगति को लेकर गीताप्रेस प्रबंधन एवं कर्मचारी आमने-सामने हैं। इससे पहले 1982 में वेतन विसंगति को ही लेकर हड़ताल हुई थी।
44 दिन चली हड़ताल के बाद कर्मचारी यूनियन भंग कर दी गई और यूनियन के नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। अब एक बार फिर इतिहास खुद को दोहराता नजर आ रहा है। 90 वर्ष पूर्व स्थापित इस संस्था को महात्मा गांधी ने सुझाव दिया था कि अपने प्रकाशन में विज्ञापन मत देना, जिसका संस्था आज पर्यन्त तक निर्वहन कर रही है। यह संस्था हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, मराठी, तेलुगू, बांग्ला, उडिय़ा, तमिल, कन्नड़ सहित अंग्रेजी भाषा में अपने साहित्य का प्रकाशन न्युनतम दामों में करती है। सरकार की ओर से कागज उपलब्ध नहीं है, कागज बाजार मूल्य पर क्रय किया जाता है। अपनी साफ एवं सटीक मुद्रण के लिए ख्यातिनाम यह संस्था दावा करती है कि अगर किसी ने भी त्रुटि पकड़ी तो उसे इनाम दिया जायेगा।
लेखक अपने हिन्दी के सीमित ज्ञान के कारण इस संस्था के समक्ष स्वयं को बौना महसूस करता है। व्यक्ति दो कारणों से किसी कार्य को करता है, अ’छा कारण और वास्तविक कारण, इतने बेहतरीन लक्ष्य को लेकर विश्व में शायद ही कोई संस्था कार्य कर रही हो। परन्तु आज गांधी के फलसफे धरे के धरे रह गये हैं गोया की आदर्शो और सिद्धांत पर चलने वालों के मंदिर बन जाते हैं पर उनके घर बिक जाते हैं। सवाल यह उठता है कि अथाह धन कूटने वाले मंदिरों के ट्रस्ट गीता प्रेस की सहायता के लिए आगे क्यों नहीं आ रहें हैं? इतने समृद्ध ट्रस्ट अपनी कमाई का 0.01 प्रतिशत भी इस संस्था को अनुदान के रूप में दे तो वैतरणी पार की जा सकती है। तथाकथित बाबा गीता प्रेस से प्रकाशित शास्त्रों का अध्ययन कर आज अरबों कमा कर एयर कंडिशन में बैठ कर कर्मशील होने प्रवचन दे रहें हैं। कर्मचारियों का कहना है कि सेवा भाव के नाम पर जुड़े कर्मचारियों से एक घंटे बेगार कराया जाता है। उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 4500 रूपये दिये जा रहें हैं। देखना है कि क्या धर्म की ठेकेदारी कर अरबों रूपये कमा रहे किसी की अन्तरआत्मा जागती है या नहीं, वैसे 200 कर्मचारियों का जिम्मा लेना इनके लिए कोई पहाड़ तोडऩा भी नहीं है?
सपन दुबे, बैतूल, मोबाईल – 9425003605
एकस्ट्र कवर
गीताप्रेस, विश्व की सर्वाधिक हिन्दू धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था है। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर के शेखपुर इलाके की एक इमारत में धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन और मुद्रण का काम कर रही है। इसमें लगभग 200 कर्मचारी काम करते हैं। यह एक विशुद्ध आध्यात्मिक संस्था है। देश-दुनिया में हिंदी, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित धार्मिक पुस्तकों, ग्रंथों और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री कर रही गीताप्रेस को भारत में घर-घर में रामचरितमानस और भगवद्गीता को पहुंचाने का श्रेय जाता है। गीता प्रेस की पुस्तकों की बिक्री 18 निजी थोक दुकानों के अलावा हजारों पुस्तक विक्रेताओं और 30 प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर बने गीता प्रेस के बुक स्टॉलों के जरिए की जाती है। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा कल्याण (हिन्दी मासिक) और कल्याण-कल्पतरु (इंग्लिश मासिक) का प्रकाशन भी होता है।
गीताप्रेस की स्थापना सन् 1923 ई में हुई थी। इसके संस्थापक महान गीता-मर्मज्ञ जयदयाल गोयन्दका थे। इस सुदीर्घ अन्तराल में यह संस्था सद्भावों एवं साहित्य का उत्तरोत्तर प्रचार-प्रसार करते हुए भगवत्कृपा से निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। आज न केवल समूचे भारत में अपितु विदेशों में भी यह अपना स्थान बनाये हुए है। गीताप्रेस ने नि:स्वार्थ सेवा-भाव, कर्तव्य-बोध, दायित्व-निर्वाह, प्रभुनिष्ठा, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना और आत्मोद्धार की जो सीख दी है, वह सभी के लिये अनुकरणीय आदर्श बना हुआ है। करीब 90 साल पहले यानी 1923 में स्थापित गीता प्रेस द्वारा अब तक 45.45 करोड़ से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन किया जा चुका है। इनमें 8.10 करोड़ भगवद्गीता और 7.5 करोड़ रामचरित मानस की प्रतियां हैं। गीता प्रेस में प्रकाशित महिला और बालोपयोगी साहित्य की 10.30 करोड़ प्रतियों पुस्तकों की बिक्री हो चुकी है। गीता प्रेस ने 2008-09 में 32 करोड़ रुपये मूल्य की किताबों की बिक्री की। यह आंकड़ा इससे पिछले साल की तुलना में 2.5 करोड़ रुपये ‘यादा है। बीते वित्त वर्ष में गीता प्रेस ने पुस्तकों की छपाई के लिए 4,500 टन कागज का इस्तेमाल किया। गीता प्रेस की लोकप्रिय पत्रिका कल्याण की हर माह 2.30 लाख प्रतियां बिकती हैं।
बिक्री के पहले बताए गए आंकड़ों में कल्याण की बिक्री शामिल नहीं है। गीता प्रेस की पुस्तकों की मांग इतनी ‘यादा है कि यह प्रकाशन हाउस मांग पूरी नहीं कर पा रहा है। औद्योगिक रूप से पिछड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस प्रकाशन गृह से हर साल 1.75 करोड़ से ‘यादा पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं। गीता पे्रस के प्रोडक्शन मैनेजर लालमणि तिवारी कहते हैं, हम हर रोज 50,000 से ‘यादा किताबें बेचते हैं। दुनिया में किसी भी पब्लिशिंग हाउस की इतनी पुस्तकें नहीं बिकती हैं। धार्मिक किताबों में आज की तारीख में सबसे ‘यादा मांग रामचरित मानस की है। अग्रवाल ने कहा कि हमारे कुल कारोबार में 35 फीसदी योगदान रामचरित मानस का है। इसके बाद 20 से 25 प्रतिशत का योगदान भगवद्गीता की बिक्री का है। गीता प्रेस की पुस्तकों की लोकप्रियता की वजह यह है कि हमारी पुस्तकें काफी सस्ती हैं। साथ ही इनकी प्रिटिंग काफी साफसुथरी होती है और फोंट का आकार भी बड़ा होता है।
गीताप्रेस का उददेश्य मुनाफा कमाना नहीं है। यह सदप्रचार के लिए पुस्तकें छापते हैं। गीता प्रेस की पुस्तकों में हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा और शिव चालीसा की कीमत एक रुपये से शुरू होती है। गीता प्रेस के कुल प्रकाशनों की संख्या 1,600 है। इनमें से 780 प्रकाशन हिंदी और संस्कृत में हैं। शेष प्रकाशन गुजराती, मराठी, तेलुगू, बांग्ला, उडिय़ा, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। रामचरित मानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है। तमाम प्रकाशनों के बावजूद गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्याण की लोकप्रियता कुछ अलग ही है। माना जाता है कि रामायण के अखंड पाठ की शुरुआत कल्याण के विशेषांक में इसके बारे में छपने के बाद ही हुई थी। कल्याण की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती अंक में इसकी 1,600 प्रतियां छापी गई थीं, जो आज बढ़कर 2.30 लाख पर पहुंच गई हैं। गरुड़, कूर्म, वामन और विष्णु आदि पुराणों का पहली बार हिंदी अनुवाद कल्याण में ही प्रकाशित हुआ था।