बैतूल। आचार्य विजय आर्य ‘स्नेही’ द्वारा रचित पुस्तिका का प्रकाशन मप्र तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एक अमूल्य साहित्यिक वैज्ञानिक व धार्मिक रचना है। हम सब दुखों से मुक्ति पाने के लिए अपने यहां सत्यनारायण की कथा करवाते हैं। कथा वाचकों ने इसे कहानियों का प्रारूप देकर उसकी महत्ता कम करने का उपक्रम किया है। इससे भगवान सत्यनारायण का विज्ञान व रहस्य बिलकुल पाश्र्व में चला जाता है। दुख से परित्राण के जो मार्ग है वे सब वेदों व उपनिषदों में निहित हैं।
‘सत्यनारायण’ के शब्द में एक विशेषण सत्य लगा है जिसका अर्थ लेखक ने इस तरह स्पष्ट किया है कि कर्तव्य, सदाचार, मर्यादा व विवेक के आधार पर आचरण करना ही नारायण का सत्य है। यह शतपथ ब्रह्मण में कहा गया है असते मा सद्गमय, तमसो मा ‘योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम् गमयेति कि हे ईश्वर असत्य आचरण से सत्य आचरण की ओर बढ़े, अज्ञान के तमस से बाहर निकलकर ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसित हो। असत्य मृत्यु है व सत्य ज्ञान मोक्ष के लिए अमृत है। इसी दर्शन को। स्कंद पुराण के अंतिम पंाच अध्यायों में उतारा गया है। वैदिक धर्म में समाज को चार भागों में विभाजित किया गया है। जिसमें ब्राह्मण को उस सत्य का लक्ष्य दिया गया है कि वह अज्ञान के अंधकार को दूर करे, क्षत्रीय अन्याय का नाश करे, वैश्य अभाव का नाश करे और वैश्य अपनी श्रम साधन से उन सबका जीवन शुद्ध व सुखमय बनाएं। इस तरह सत्यनारायण की कथा एक उपासना का विज्ञान है।
कथा का श्रवण करते समय हम कथा वाचक से कुछ शब्द सुनते है बगैर जाने की उनका गूढ अर्थ क्या है? हम तो सामान्य पाठक श्रोता है परन्तु लेखक विजय आर्य ने इन सामान्य शब्दों के अर्थ स्पष्ट कर उन्हें वैज्ञानिक आधार दिया है। उदाहरण के लिए हमें ज्ञात हुआ कि वैतरणी शब्द की व्युत्पत्ति वितरण से हुई जिसका अर्थ दान से होता है। यह मात्र नदी नहीं हैं। यह दान व त्याग की नदी है और दान किसका? गाय का जो हिन्दू संस्कृति में सबसे पवित्र मानी जाती है। इसी तरह तीर्थ शब्द हमारे लिए साधारण अर्थ रखता है जबकि विद्वान लेखक ने स्पष्ट किया कि जो भव सागर से तार सके वही तीर्थ होता है। सर्वोत्तम तीर्थ नैमिषारण माना जाता है। यह तीर्थ ह्रदय में स्थित होता है। नैमिश और अरण्य अर्थात वन या जंगल जहां। अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, संतोष, स्वाध्याय जैसे तीर्थ होते हैं। जहां ध्यानवस्था में आत्मदर्शन होता है। सत्यनारायण को सतनारायण कहते हैं। अब ‘सत’ शब्द की विवेचना करें तो यहां लेखक ने स्पष्ट किया कि सत का अर्थ होता है जो समय के बंधन में नहीं होता है। केवल परमात्मा ही ऐसा होता है। अब सत्य – नारायण के शब्द नारायण को देखें तो मालूम हुआ कि जल और जीवों का नाम नारा से अभिव्यक्त होते हैं और अयन का अर्थ निवास स्थान होता है। यानी सब जीवों में व्याप्त परमात्मा का नाम नारायण हुआ।
उपवास का अर्थ अन्न ग्रहण करना शरीर को कष्ट देना नहीं हुआ। उप का अर्थ होता है समीप ईश्वरत्व के पास बैठना और उसके गुणों को ग्रहण करना और जिन्होने सत्यनारायण को जब हम वरण करते हैं तो वृत्ती बनते हैं। इसी तरह उपासना शब्द उस तथ्य को इंगित करता है जब भक्त अपने आपको प्रभु को अर्पण कर उपासक कहलाता है। उपासना का एक मूल मंत्र ‘ओउम्’। यहां भी वेदांती विजय आर्य ने इस मंत्र का विश्लेषण इस प्रकार किया है कि इसकी तीन मात्राओं के तीन अर्थ निकलते हैं। ओउम् के अ से भू: पृथ्वी और ऋग्वेद उकार से भुव: अंतरिक्ष और यजुर्वेद म के मकार से आदित्य मंडल व सामवेद। ओउम् की आत्मा का परम लक्ष्य है। वर्णाश्रम धर्म का पालन इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए होता है। दूसरा लक्ष्य अर्थ, धर्म काम और मोक्ष की प्राप्ति। इसके लिए कथा में सदानंद ब्राह्मण जो सत्य व व्रत और आचरण से सुखी हुआ।
एक लकड़हारा अपना व्यवसाय में सत्य न्याय व ईमानदारी से काम करता है, साधु बनिया अपना संकल्प बार-बार तोडऩे से दुख पाता है व परिणाम स्वरूप दुख भोगता है। लेखक का निष्कर्ष प्रशंसनीय और आत्मसात करने योग्य है कि भवसागर में नैया डाल मनुष्य यह न समझे कि नाव में घास-फूस है। याचक को देना ही चाहिए। कथा के ये सब चरित्र प्रतीकात्मक हैं। कथा के आवरण के पीछे तर्क व शिक्षा को अनावृत करने के लिए विजय आर्य ने ऐसा योगदान दिया है जो समस्त कथा वाचकों व श्रवणों के लिए एक सुंदर अध्यात्मिक उपहार है।