दंगल के विषय में रोचक जानकारी है कि फिल्म के निर्देशक नितिश तिवारी का जन्म इटारसी (म.प्र.) में हुआ था। नितिश ने चिल्लर पार्टी, किल दिल, भूतनाथ रिटर्न जैसी औसत फिल्में बनाई। आजकल फिल्म से अमीर खान के जुड़ते ही फिल्म खास हो जाती है, अमीर सिर्फ लीड रोल में ही नहीं हैं बल्कि वे फिल्म के निर्माता भी हैं। इस वजह से उन्होने महावीर फोगट की बायोपिक को संदेशात्मक फिल्म के साथ कमर्शीयल बनाने में कसर नहीं रखी। विगत दिनों अमीर खान के एक बयान की सोशल मीडिया पर काफी भत्र्सना हुई थी। इसके बाद भी फिल्म सुपर हिट हो रही है। यह डीएनए रिपोर्ट है और भारतीयता का सबसे सुंदर पहलू भी है कि भारतीय हद दर्जे के कट्टर नहीं है। कट्टरता हर क्षेत्र में विकास को अवरूद्ध करती है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान इसका उदाहरण है। कट्टरता खेल,मनोरंजन, व्यापार से लेकर शिक्षा सभी जगह के विकास को लील जाती है। अमीर उस बयान के लिए शर्मसार हैं और होना भी चाहिए। उन्हें सुपर स्टार बनाने वाले भारतीय दर्शकों ने फिल्म को पसंद कर (क्योंकि फिल्म उस लायक है) शायद उन्हें ग्लानी महसूस जरूर करवा दी होगी।
फिल्म की पंच लाईन है ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम हे के’ जो द्योतक है कि लड़कियों को कमतर ना समझा जाए। भारत के कुछ इलाके छोड़ दे तो लड़कियों के प्रति मानसिकता बदल रही है। ऑलम्पिक में भी लड़कियों ने ही नाक बचाकर इस विचारधारा की पुष्टी कर दी है। फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है जिसमें दिखाया गया है कि भारत में पदक की उम्मीद तो की जाती है लेकिन अनुकूल वातावरण नहीं दिया जाता है। नायक स्वयं कुश्ती का राष्ट्रीय चैम्पीयन है लेकिन उसके पिता कहते हैं कि मेडल से घर नहीं चलता है, और नायक एक मामूली सी नौकरी कर अपने जूनून को विराम लगा देता है। भारत में लड़कियों के प्रति तो नजरिया बदल रहा है लेकिन खेल को सिर्फ खेल समझने की हम आज तक भूल कर रहें है। एक दृश्य में नायक इसे इस तरह परिभाषित करते हुए कहता है कि ‘मेडल पेड़ पर नहीं उगते हैं’।
अमीर ने फिल्म के लिए अपना वजन बड़ाया यह उनके समर्पण को दर्शाता है। इससे पहले दिलीप कुमार ही ऐसे अभिनेता रहें हैं जिन्होने किरदार में घुसने के लिए ऐसे भागीरथी प्रयास किए हैं। ज्ञातव्य है कि दिलीप कुमार को टे्रजडी किंग कहा जाता है वे लगातार टे्रजडी फिल्में करते रहे और एक दौर में अवसाद में चले गए। जिसके बाद डाक्टर की सलाह पर हास्य फिल्म राम और श्याम आदि की। गोया की किरदार को करना और किरदार को ही जीने लगना जुदा बात है। इस फिल्म का सबसे शानदार हिस्सा वह है जहां बेटी और पिता के रूप में गुरू का द्वंद शुरू होता है। बेटी काबिल हो जाती है तो उसे पिता कोच की भूमिका में दोयम लगने लगता है। बाद में असफल होने पर पिता ही उसे पुन: संवारता है। फिल्म में फातीमा साना शेख ने बबीता फोगाट और साक्षी तंवर बखूबी अभिनय किया है। फातीमा साना शेख के अलावा शायद कोई और इस किरदार पर इतना फिट नहीं बैठता। संगीतकार प्रीतम का संगीत अ’छा है,अमिताभ भटाचार्य का लिखा गीता बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है हास्य लिए हुए है जो अंदर तक गुदगुदाता है। फिल्म में कहीं-कहीं हास्य का पुट स्वत: उत्पन्न होता है। बहुत समय बाद संदेशात्मक और मनोंरजक फिल्म आई है जिसे परिवार के साथ देखा जा सकता है।