भारत की पुरातन संस्कृति में होली का विशेष महत्व है। होली रंग गुलाल का त्यौहार है यह फाल्गुन मास की पूर्णिका को मनाया जाता है। होली में रंग खेलना,और हुडदंग के साथ-साथ गाना बजाने का एक अलग ही आनंद है होली मेें फाग गायन का अपना अलग ही आनंद और रोमांच है। आज धीरे- धीरे फाग गायन जिलें में कम होता दिखाई दे रहा हैं। यह बात डॉ. महेश गुंजेले ने कही, उन्होने कहा कि बैतूल जिले में अलग-अलग समाज के लोग निवास करते है इनकी अपनी अलग-अलग लोक संस्कृति है एवं फाग गायन भी अलग-अलग है। फाग गायन शैली में ब्रम्ह फाग,तुर्रा फाग,कलंगी फाग का मुख्य स्थान है ब्रम्ह फाग जो पार ब्रम्ह नाम इसको गायन शैली का स्तंम्ब मानते हुए विपक्ष तुर्रा,कलंगी,हण्डा,डुण्डा,फाग गायन शैली पर प्रश्रो की बौछार एक ब्रम्ह को कर्ता धर्ता बताते हुए कर्ता है ,तुर्रा फाग का गायक शंकर जी एवं शंकर जी के त्रिशुल को स्तंम्ब मानते हुए ब्रम्ह कलंगी,हण्डा,डुण्डा पर प्रश्रो की बौछार करता है तथा विपक्षीयों के प्रश्रो के उत्तर देता है ,कलंगी फाग गाने वाले गायक आदि शक्ति मां जगदम्बा को अपने गाने का स्तंम्ब मानते हुए जगत की कर्ता धर्ता कलंगी को दर्शाता है ब्रम्ह, तुर्रा , हण्डा, डुण्डा पर प्रश्रों की बौछार करता है
इन गायन शैली में मुख्य रूप से ढोलक, झांझ, टिमकी, एकतारा, खजरीं, घेरा,आदि का उपयोग होता है आज यह फाग गायन शैली खत्म होने की कगार पर है। जिले के मुलताई,प्रभातपटट्न,बैतूल,आठनेर,तथा भैसदेही विकासखण्डों में आज इन शैली के गाने वाले दल कम होते जा रहे है क्योकि दल के सदस्य उम्र दराज है और नए सदस्य इसे सिखना नहीं चाहता इसे बचाने की आवश्यकता है इसी प्रकार आदिवासी समाज के बारे में डाँ महेश गुंजेले ने बताया कि बैतूल जिले में आदिवासी समाज फागुन चांद देखने के बाद उसे नमस्कार कर घर की साफ सफाई कर बडे आंनद के साथ बडा देव की विनती कर फाग गायन फागुन माह में प्रारंभ करता है।
इस गायन में युवक युवतियों की टोली होती है गायन के माध्यम से एक दूसरे पर कटाक्ष करते है फाग देवर-भाभी,ननद-भाभी,जीजा-साली,लडका-लडकी आदि के बीच गायन के साथ वार्तालाप और नोंग-झोंक तथा रंग-गुलाल होता है होलिका दहन के बाद सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार यहां पर भारी होली जिसे ठण्डी होली भी कहा जाता है कि पूजा की जाती है और होली कि राख से तिलक लगाया जाता है यह बुराई पर अ’छाई का प्रतीक माना जाता है। इसी दिन से जगह-जगह पर मेघनाथ खडराई के मेले लगना प्रारंभ हो जाते है। युवाओं द्वारा टिमकी नृत्य और महिलाओं द्वारा सार नृत्य किया जाता है। फगुआ हाट बाजारों,गली मोहल्लों में मांगा जाता है और फाग के माध्यम से एक दूसरे से नोंक-झोंक रंग गुलाल खेला जाता है। हमारा आदिवासी समाज फागुन माह को बडे ही उत्साह के साथ मनाते है। धीरे- धीरे आदिवासी समाज में भी यह फाग गायन शैली,खत्म होती दिखाई देती है ।
जिले की इस वाचिक काव्य परम्परा लोक गायन शैलि को सहेजने के प्रयास दस चरणो में किये जा रहे है। डाँ महेश गुंजेले ने बताया कि ब्रम्ह फाग,तुर्रा फाग,कलंगी फाग तथा आदिवासी समाज में गाई जाने वाली फागो का संकलन किया जा रहा है, जिसमें अलग-अलग लगभग एक हजार फागो का संकलन किया जाएगा। जिसे बैतूल की जनजातीय फाग गीत के नाम से प्रकाशित किया जाएगा तथा गायन और नृत्य के क्षेत्र में जुडे दलो को चिन्हीत कर फाग गायन शैली को संरक्षित करने के प्रयास किए जाएंगे।