बात है सन् 1998 की, बीएसएनएल द्वारा प्रदत्त एसटीडी कनेक्शन (व्यवसायिक) प्राप्त करने के लिए भारी भरकम सरकारी कार्यवाही से गुजरना होता था। जिसमें शामिल था कि एसटीडी जो प्राप्त करना चाहता है, वह एक व्यापारी, चार्टड एकाउंटेंट की सहमति, 100 मीटर पास में कोई दूसरी एसटीडी ना हो, एक बूथ बनाना जरूरी, अमानत राशि, स्टाम्प पर लगभग 10 पेज के फार्म (अंग्रेजी में थे जिसे समझना नामुमकिन जैसा था) …. आदि आदि औपचारिकताएं होती थी। इसके बाद बीएसएनएल का एक अधिकारी स्थल निरीक्षण करता था। उसके बाद मिलता था एसटीडी कनेक्शन। जिसके बाद नियम था कि दूकान के बाहर पीले रंग के बोर्ड पर लिखना आवश्यक है कि ‘भारत संचार निगम द्वारा प्रदत्तÓ। मैं यह इसलिए बता रहा हूं कि यही सब प्रक्रिया से गुजरकर मैने भी 19 बरस पहले एसटीडी कनेक्शन लगवाया था जिसे मैने हाल में ही अपना व्यवसायिक एसटीडी कनेक्शन कटवा दिया है। इससे जुड़ी यादें और अजीबो-गरीब अनुभव हैं। उस समय रात्रि 7 बजे से 9 बजे तक आधी दर और 9 बजे से 11 बजे तक एक चौथाई दर लागू होती थी।
जिन्होने अच्छे कर्म किए हो उन्हीं का फोन दस बार में लगता था। उस दौर में इस सिस्टम से कई रोमियो जूलियट की कहानी परवान चढ़ते देखा। जिसमें से कई लड़किया या लड़के ऐसे थे जो घंटों अपने आशिक से गपशप करते और उनमें से अधिकतर की शादी उनसे नहीं हुई। फिर वहीं लड़कियां अपने पति से घंटों बातें करती। मैने नोटिस किया किया शादी के 2-3 माह तक लम्बी बाते होती थी लेकिन 2 साल बाद ‘सकुशल पहुंच गए, रास्ते में पप्पू को उल्टी हुई, पप्पू का ध्यान रखनाÓ बोल कर काट दिया जाता है। एसटीडी के साथ फैक्स भी अटैच होने लगा। मेरे साथ कुछ बहुत ही अजब-गजब अनुभव हुए। एक दफा एक ग्रामीण बूजुर्ग टोपी, धोती-कुर्ता पहने आए और बोल मेरे दामाद को यह कागज फैक्स करना है। मेरा दामाद ग्वालियर की कंपनी में गार्ड है(दामाद का नाम स्मृति में नहीं है)। मैने कहा ठीक है पर चाचा फैक्स नंबर तो बताओ तो बोले- बताया तो फलां कंपनी में गार्ड है, फलां नाम है, ग्वालियर के फलां इलाके में रहता है, तो कर दो फैक्स। ऐसी ही एक बार एक भद्र महिला ने अपने मायके कॉल किया और लम्बी बात करते हुए अपने पारिवारिक झगड़े के किस्से बताते हुए अपने भाई से बोली की भैया तुम कल नहीं आए तो सोमवार को मेरी लाश ले जाना।
फोन रखकर मुझसे मुखातिब होते हुए बोली भैया कितने हुए मैने कहा 60 रूपए (उस समय बहुत होते थे)। वो बोलीं ठीक है सोमवार को दे दुंगी। मैने कहा आपके भैया रविवार को पक्का आ जाएंगे ना? वो बोली क्यों, मैने कहा कि आपने रविवार को मरने का विकल्प रखा है इसलिए। वो हंसने लगी, शायद अपनी बेवकूफी पर। सब अच्छा हुआ और उन्होने लगभग 10-15 दिनों बाद मेरे पैसे लौटा दिया। एक वाक्या और खास था एक बूजुर्ग महिला ने नंबर देकर कहा ये नंबर मेरी बेटी का है उससे बात करा दो, मैने नंबर लगा दिया उनकी बेटी के बच्चे ने फोन उठाया और बात कर फोन रख दिया। मैने कहा पैसे तो कहने लगी मेरी बेटी उसके पड़ोस में गई है मेरी उससे बात ही नहीं हुई तो कैसे पैसे। मै हतप्रभ होकर उसे देखता रहा। एसडीडी के कारण पूरे मोहल्ले के लोग मेरे यहां से कॉल करते और उनके रिश्ते-नातेदार भी मुझे पहचानने लगे। वे बैतूल आते तो मुझसे आत्मीयता से मिलते जरूर थे। अब मोबाईल ने वो जिज्ञासा को लील लिया है आसानी से रिश्तेदारों से संपर्क किया जा सकता है। परन्तु आश्चर्य है कि दूरियां फिर भी बढ़ गई हैं। संचार के साधन तो बड़ गए लेकिन संवाद में दूरी हो गई। पर बहुतो को मेल करती थी, एक थी एसटीडी ……..