सीआपीएफ की एक टुकड़ी में पदस्थ बैतूल का जवान अनिल अडलक शहीद हो गए। समाचार मिला तो ऐसा लगा की किसी अपने को खो दिया। नौकरी उस जवान का प्रोफेशन हो सकता है जिसमें वह अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहा था लेकिन देश के लिए शहीद होना उसका पेशा नहीं था वह हमारे लिए शहीद हुआ। एक कर्ज था जो हमेशा के लिए हम पर छोड़ गया। बैतूल के व्यापारियों ने ‘ा’बा दिखाया और विवाह के इस सीजन में दुकाने बंद करने का निर्णय अपनी स्वे’छा से लिया। खाकसार की व्यक्तिगत राय है कि दोपहर 2 बजे तक दुकान खोल कर व्यापार किया जाता और इस दौरान हुए मुनाफे का एक हिस्सा शहीद जवान स्वे’छा अनुदान के रूप में अर्पित कर दिया जाता तो यह एक प्रासांगिक और ‘यादा संवेदनशील विकल्प होता।
सराफा, किराना, कपड़ा, थोक आदि बाजार से बड़ी धनराशि इकट्ठा हो सकती थी। जवान की शव यात्र जिस भी प्रतिष्ठान और घरों के सामने से निकलती उस पर पुष्प अर्पित जरूर करना चाहिए यह हमारा फर्ज भी है। योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश में कई महापुरूषों की जयंती और पुण्यतिथि को अवकाश रद्द कर दिया है। होना भी यही चाहिए क्योंकि भारत में बाबूराज के चलते वैसे ही दिनों में होने वालों काम को वर्षो लग जाते हैं। बंद किसी भी रूप में ठीक नहीं है। शिक्षक स्कूल बंद कर हड़ताल कर रहें हैं ब’चे छुट्टी मनातें हैं, हडताली टे्रन की पटरी उखाड़ देते हैं टे्रनें विलम्ब से चलती हैं जिसमें साक्षातकार देने जा रहे युवा एवं बीमार भी हो सकते हैं। भारत में कुछ लोग मतदान के दिन मिली छुट्टी का भी उपयोग पिकनिक मनाने के करतें है। किसी पार्टी के एक नेता पर भोपाल में हमला होता है और बैतूल बंद करने की बात की जाने लगती है।
व्यापम जैसे शर्मनाक घोटाले के लिए मध्यप्रदेश बंद कराने से क्या होगा, ऐसे घोटालों पर भी न्यायालयों से ‘यादा विपक्ष ने सड़कों पर लड़ाई लड़ी है। जमीं पर भगवान का दर्जा प्राप्त डाक्टरों को भी हड़ताल का चस्का लग चुका है। भारतीय कर्तव्यों से ‘यादा अधिकार को तव”ाो देते रहें हैं। रोचक बात यह है कि पूंजीवादी देशों में हड़तालें कम होती हैं और शायद साम्यवादी देशों में भी नहीं होतीं। हमारी मिलीजुली अर्थव्यवस्था में ना तो पूंजीवादी उत्पादन पर आग्रह रहा और ना ही साम्यवादी अनुशासन पर। भारत में औद्योगिक मजदूरों के लिए लेबर लॉज बनें हैं, श्रमजीवियों की तरह बुद्धिजीवियों ने भी यूनियन बनाकर हड़तालें आरम्भ कर दी हैं, क्या यह संविधान सम्मत है? क्या इन्हें भी लेबर लॉज का लाभ मिलना चाहिए? जो भी हो, श्रम द्वारा पूंजी का सृजन होना चाहिए, विनाश नहीं। श्रमजीवियों और बुद्धिजीवियों के लिए अदालतें बननी चाहिए जो समयबद्ध तरीके से फैसला सुना दें। अन्याय से निपटने की लड़ाई सड़कों पर नहीं ट्रिब्यूनल या अदालतों में होनी चाहिए। भारतीय हर चीज अतिरेक में करते हैं,हमारी हथेलियां या तो पत्थर उठाने को बेकरार है या ताली बजाने के लिए।
(आर्मी में पदस्थ बैतूल का एक जवान सन् 1987 में कश्मीर में शहीद हो गया थे, लेख की आधारशीला उनकी पत्नी से की गई चर्चा और उनके अनुभव के आधार पर है)