बैतूल। सन् 1983 में प्रदर्शित फिल्म अर्पण का एक गीत आनंद बख्शी ने लिखा था कि ‘मोहब्बत अब तिजारत बन गई हैÓ, वैसे कत्रिम प्रेम कभी टिक नहीं सकता और सच्चे प्रेम की नकल नहीं हो सकती है। तिजारत तो वर्तमान समय में शिक्षा और चिकित्सा हो गई है। जो एक वक्त सबसे बड़ा सेवा का क्षेत्र माना जाता था। एक समय था जब विद्यालय के मुख्य द्वार पर लिखा होता था शिक्षार्थ आइये सेवार्थ जाइए। अब तथाकथित विद्यालयों में इस पंक्ति के साथ यह भाव भी लुप्त हो गया। बिना सरकारी मान्यता और संसाधन के ये विद्यालय अप्रशिक्षित शिक्षकों को लेकर किराए के भवनों में चलाते हुए दावा ठोक रहें है कि विद्यार्थिओं के सर्वागीण विकास किया जाएगा। आज जितना लाभ शिक्षा के क्षेत्र में है उतना कहीं और देखने को नहीं मिलता है और यही कारण है
कि गैरसरकारी विद्यालयों में शिक्षा को ताक पर रख पैसा छापा जा रहा है। आज विद्यालय टकसाल बन गए हैं। जहां अभिभावक को आम की गुठली मानते हुए निजी स्कूल शिक्षा देते-देते कपड़ा व्यापारी, पुस्तक विक्रता भी बन गए हैं। वहीं सरकारें बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से सिर्फ स्कूल चलो अभियान चला रही है। हास्यास्पद है कि चुनावों में शिक्षा को कभी भी किसी भी राजनैतिक दल ने प्रमुखता से अपने एजेंडे में शामिल नहीं किया है, क्रियांवयन तो दूर की बात है। वहीं निजी स्कूल इस अभियान के विपरीत मनमाने ढंग से डोनेशन के नाम पर भारी भरकम धन कूट रहें हैं। फाईव स्टार स्कूल विज्ञापनों में उल्लेख कर रहें हैं कि हमारा 5 एकड़ में फैला और वातानुकुलित स्कूल है, गोया कि बच्चे को पढऩा नहीं है वहां खेती करने और ठंड खाने जाना है।
अभिभावक भी अंधी और अंतहीन मैराथन कर रहें हैं, बच्चों को मंहगे स्कूल में पढ़ाना उनके भविष्य निर्माण के साथ स्टेटस से जुड़ गया है। एप्पल के कोफाउंडर स्टीव का मानना है कि भारतीय रचनात्मक नहीं रहें। उन्होने उल्लेख किया कि एक समय भारतीय ने कई अविष्कार कर दुनिया को हैरत में डाल दिया था। अब भारतीय लकीर के फकीर हो गए हैं, इनोवेशन शून्य होता जा रहा है और गुगल ही गुरू हो गया है। गौरतलब है कि विगत 6-7 वर्षो में अचानक 10वीं और 12वीं के बच्चों के प्रतिशत में बतहाशा वृद्धि हुई है। ऐसा क्यों हो रहा है? 12वीं में किसी मध्यमवर्गीय बच्चे के 90 से अधिक प्रतिशत आने पर मां-बाप उसके उच्चस्तरीय शिक्षा के लिए लोन लेकर निजी संस्थाओं में भेजते हैं क्योंकि उन्हें संभावना के दर्शन करा दिए जा रहें हैं। यह एक शिक्षा माफिया या सिंडिकेट तो नहीं हैं? इसी के बाय प्रोडेक्ट आज इंजीनियर हो गए हैं। दुर्भाग्य है कि सड़कों पर पत्थरों से ज्यादा इंजीनियर पैरों में आ रहें हैं। इस सड़े-गले सिस्टम के कारण अपने जीवन के 18-20 बरस खपाने के बाद बच्चा माकूल पद पर पहुंच नहीं पा रहें हैं और नैरश्य में डूब जाते है। कोल्हे के बैल की तरह संघर्ष कर रहे माता-पिता टूट रहें हैं।
बच्चे प्रयोगशाला की तरह वपरे जा रहें हैं, उनके मस्तिष्क का प्रत्यार्पण निजी स्कूल के संचालक सर्जन की तरह कर रहें हैं। मैकाले कहीं हंस रहा है। सोचियेगा जरूर……….