यह यक्ष प्रश्न हमेशा विद्यमान है कि मूर्गी पहले आई या अंडा, ठीक वैसे ही फिल्मों में वही दिखाया जाता है जो समाज में घटित हो रहा है या फिल्मों का प्रतिबंब समाज पर पड़ता है, इसका जवाब भी किसी के पास नहीं है। न्यूज चैनलों में इसी विषय पर डिबेट के नाम पर कई बार मूर्खो की जमात को बैठाया गया। जो शोर-शराबा कर चले गए, प्रश्न वहीं अपनी जगह मूंह बाएं खड़ा है। इस लेख का आधार हाल में ही प्रदर्शित फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग हैÓ। फिल्म की निर्माता टीम में में एकता कपूर भी हैं जिन्होने एक समय गृहणियों को तथाकथित भारतीय संस्कारों का पाठ पढ़ाया था। विषय इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि फिल्म में मौजूद समय की शीर्ष नायिकाओं ने काम किया है। पूर्व में इस तरह की फिल्मों में ‘सीÓ ग्रेड नायिकाएं ही काम करती रही है।
.दरअसल इस दूषित दृष्टिकोण की जड़ें बहुत गहरी है और हम में यह साहस भी नहीं है कि हम इसकी निष्पक्ष जांच-पड़ताल कर सकें। मनोरंजन या राजनीति का क्षेत्र हो हमारा नजरिया ही बचकाना है। दरअसल हमारा भीतरी खोखलापन हमें नग्नता की ओर आकर्षित कर रहा है और फिल्मकार भी दक्ष व्यापारी की भांति बाजार में मांग का आकलन कर वैसा ही माल बना रहें हैं। देखा जाए तो कला का इससे अधिक पतन दूसरी किसी विद्या में नहीं हुआ। बालीबुड में कला फिल्मों की आड़ में भी कई बार सैक्स को अचार या चटनी की तरह परोसा गया है। नग्नता दिखना मनोवैज्ञानिक प्रदर्शनवादी बिमारी है और इसकी ओर आकृष्ठ रहना हमने अपनी मजबूरी बना लिया है। फिल्मों से ‘यादा गंदगी हमारे मस्तिष्क में हमेशा विद्यमान रहती है हम लंपटता और टू”ोपन को अंदर दफन करने का फकत ढोंग ही कर रहें हैं। जिसे फिल्मकार बखूबी समझते हैं। मौजूदा दौर में इलेक्ट्रोनिक गेजेट्स हाड-मांस के इसानों को संचालित कर रहें हैं और लोग सोच रहें हैं कि वो गेजेट्स को चला रहें हैं।
हमारे अंदर के न्यायालय स्वत: प्रेरणा से अपराध को संज्ञान में नहीं ले रहें हैं। इसलिए आधुनिकता के नाम पर छद्म ढोंग और स्वांग रचे जा रहें हैं। मानवीय मूल्य शिक्षा और चिकित्सा जैसे क्षेत्र में नहीं रहे तो फकत फिल्मों से ही कैसे शराफत की उम्मीद की जा सकती है, यह भी एक कारपोरेट घराना है जो कमाने बैठा है। यह भी शास्वत सत्य है कि कालजायी और सशक्त फिल्म संवेदनाओं से ही निकल कर आती है।