बैतूल। आज दिनांक 7 नवंबर दिन बुधवार को आर्य समाज बैतूल कार्यालय बैतूल गंज में मृत्यु भोज पर प्रवचन के दौरान गुरूजी विजय आर्य स्नेही ने अपने निजी अनुभव के आधार पर बताया कि परिचित परिवार की घटना बताता हूं कि उस सामान्य परिवार की वृद्ध माता के परिवार के सदस्यों द्वारा उस वृद्ध अवस्था में एक गिलास दूध भी पीने को ना मिलता था। उस वृद्ध माता के देहवसान के बाद उस घर में कई प्रकार के व्यंजन बने थे। मैने पूछा- इतने व्यंजन किस लिए? परिवार का सदस्य बोला माता श्री की आत्म शांति के लिए। मैने सुनकर विचारा कि यदि जिसे जीते जी शांति नहीं दे पाए, सेवा ना कर पाये, जो जीवत अवस्था में प्यार से भी ना बोल पायें, थोड़े से दूध के लिये वृद्ध माता तड़पति रही और मृत्यु के बाद ऋण लेकर लाखों रूपये लगाकर शांति दी जा रही है। मानव दिखावे के साथ-साथ। ‘श्रवण कुमार’ बनकर वैभव का प्रदर्शन किया जा रहा है। दूसरी तरफ पुर्नजन्म को मानकर भी आत्मा को बिना शरीर भटकने वाला, मानने वालों ने, भूत प्रेत, पितृ आदि योनि की कल्पना कर ली और उनकी शांति, तृप्ति के लिये विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों का प्रचलन कर लिया। पितृ आदि के वास्तविक अर्थ को न समझकर घर परिवार में पूर्व या वर्तमान में किये गये अपने कर्म या दूसरे के कर्म के प्रभाव से मिलने वाले दुख को काल्पनिक पितर द्वारा दिया गया, मानने वाले लोग उस पितर की सदगति व शांति के उपाये इसके निमित पिंड दान, श्राद्ध तर्पण के माध्यम से ब्राह्मणों को भोजन दान दक्षिणा देते हैं। जबकि पितर: शब्द संस्कृत के पितृ शब्द का बहुवचन रूप पितर: बनता है, जो पिता आदि पूर्वजों के लिये प्रयोग होता है। गीता में भी- आचार्य: पितर:पुत्रास्तथैव च पितामह: (1/34) कहकर जीवित पिता के लिये ही पितर शब्द आया है। मृत व्यक्ति के दसवी अथवा तेरव्ही पर ईष्ट मित्रों एवं संबंधियों को आमंत्रित कर दिवंगत आत्मा के नाम से विशेष भोजन का आयोजन करना (दू:ख में कैसी भूख) जीवित अवस्था में साथ रहते हुये उसके इच्छित पदार्थो को देकर प्रेम पूर्वक व्यवहार से तृप्त नहीं करते, उसके विपरित कटु वचन बोल दुव्र्यवाहर कर दुख देते हैं। मृत्यु पश्चात उसे तृप्त करने का ढोंग करते हैं। वास्तव में दिवंगत आत्मा को इससे कोई संबंध नहीं होता है। जीवात्मा की शांति तो अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार ही होती है। जो सामाजिक प्रतिष्ठा के डर से जो परम्परा है उसे निभानी पड़ती है इसके बुरे परिणाम को निर्धन व्यक्ति अच्छी तरह जानता है। जिसे ऋण लेकर इस परम्परा को करता है। फिर ऋण उतारने के चक्कर में बच्चों की शिक्षा, उनका भविष्य आदि की व्यवस्था नहीं कर पाता है। ऋण के बदले मृतक के परिवार को जीविका के साथ भूमि या पशु आदि को बेचने पड़ जाते हैं। कई बार धनी परिवार वाले ही मृतक भोज के अधिक पक्षपाती होते हैं। जो समाज में अपनी शान दिखाने के लिये नाना प्रकार के व्यंजन बनवाते हैं। मित्रों की वाह-वाही लूटी जाती है।
इस आडम्बर के साथ फिजूल खर्ची भी होती है। अच्छा है कि मृतक भोज कराने वाले धनी व्यक्तियों तथा निर्धन, अनाथ, असहाय लोगों को भोजन करायें, वस्त्र आदि दे। निर्धन कन्या का विवाह में सहयोग कर देवें, गुरूकुल में दान देवें, सामूहिक हितकारी कार्य में दान देवें। मर्हिषि दयानन्दजी ने संस्कार विधि में अंत में लिखा है- दाह संस्कार पश्चात् जब तीसरा दिन हो, जब मृतक का कोई संबंधि शमशान में जाकर चिता से अस्थी उठा के, उस शमशान भूमि कहीं पृथक रख देवे। बस इसके आगे मृतक के लिये कुछ भी कर्म कर्तव्य नहीं है। हां यदि वह संपन्न हो तो अपने जीते जी उनके संबंधी वेद, विद्या, वेदोक्त धर्म का प्रचार, अनाथ पालन, वेदोक्त धर्म उपदेश की प्रवृत्ति के लिये चाहे जितना धन प्रदान करे अच्छी बात है। इस मान्यता का जन-सामान्य में प्रचार हो जाये तो बहुत हद तक धन का सद्उपयोग हो सकता है। इसके साथ ही मृत्यु-परलोक का वैदिक मान्यता अनुसार वास्तिवक चित्र का चित्रण जनता के सामने रखा जाये अर्थात्- यम- क्या है? वैतणी नदी क्या है? स्वर्ग-नरक क्या है? भूत क्या है? जीव (आत्मा) कितने समय तक बिना शरीर धारण किये रहता है, बारह दशाओं की स्थिति व शोधन क्रिया को समझाया जाये। क्या दिवंगत के लिये श्राद्ध-तर्पण उसे मिलता है? आदि का रहस्य जान लेने पर केवल अज्ञानता वश मृतक भोज समर्थन करने वाले लोग इस पर रोक लगा सकते हैं। अत: श्राद्ध का वास्तिविक स्वरूप अर्थात्- जीवित माता-पिता आदि की श्रद्धा पूर्वक सेवा, तृप्ति आदि करना ही है। पौराणिक श्राद्ध में पिंड दान का सही अर्थ होता है-श्रद्धा से अन्न-जल देना, जो जीवित प्राणी ही ग्रहण करता है उसे ही पिंड दान कहा जाता है। समझ लेवें जिससे परिवार व राष्ट्र को कुरीतियों व आर्थिक पतन से बचा लें।