बैतूल। नरेन्द्र मोदी फिक्की के मंच पर महिलाओं को संबोधित करते हुए स्वीकार किया कि काई भी मनुष्य पूर्ण नहीं होता है, उनमें भी कमियां हैं। यह कोई रहस्य उद्घाटन नहीं हैं, यह ओपन सिक्रेट है,लेकिन शिखर सितारों की भूल या शिखर सितारे बनने के समीप, की गई लम्हों की खता के दंश सदियों तक सालते हैं। खताऐं नादानी, जिद्द, या लालच में हो सकती हैं। फिल्म इंड्रस्टिज का एक दौरा ऐसा आया जब अमिताभ, धमेन्द्र, जितेन्द्र और ऋषि कपूर के चहरे पर उम्र दिखने लगी थी उस दौर में संजय दत्त का बाजार भाव अपने समकक्ष सनी देओल, अनिल कपूर जैकी श्राफ से कहीं अधिक था, संजय दत्त सोलो हिट दे रहे थे। उस वक्त युवा अपने कमरों में सजंय दत्त के पोस्टर चिपकाया करते थे, लेकिन अचानक हथियार रखने के जुर्म में उन्हे सजा हुई और कैरियर ढलान पर आ गया। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि संजय अपनी मां नरगिस दत्त और राजकपूर की मोहब्बत के चर्चे सुनकर बड़े हुए। इन किस्सों ने उनके बालमन पर बेहद बुरा प्रभाव छोड़। संजय को ड्रग्स की आदत पड़ गई। पहली फिल्म रॉकी फ्लप हो गई। मां नरगिस और पत्नि रिचा का केन्सर से देहांत हो गया। सभी बातें एक आम आदमी के टूटने के लिए काफी थी। संजय दत्त ने इन पूरी घटनाओं पर अद्भुत तरीके से काबू किया और नब्बे के दशक का सफल कलाकार बन गये। संजय अभिनीत फिल्में एक के बाद सुपर डुपर हिट हो रही थी। जिस फेरिस्त में कब्जा,नाम,थानेदार,साजन और सडक़ फिल्में थी। यह चिंतन का विषय है कि संजय दत्त असफलताओं और विपत्ती पर फतह हासिल कर गये परन्तु सफलता उन्हें नहीं पच पाई। संजय अंडर वल्र्ड से जूड़ते चले गये और 18 माह की कैद में रहने के कारण स्टारडम जाता रहा।
भारत में एथलेटिक होना बहुत बड़े जिगर का काम है। भारत में व्यक्तिगत खेल स्पर्धा का खिलाड़ी ‘सेल्फ मोटिवेटड इंड्युजवल यूनिट’ होता है। मुक्केबाज बिजेन्द्र सिंह ने संघर्ष ही नहीं किया बल्कि युवाओं को सपने दिखाए की कैसे मुक्केबाजी में भी नेम-फेम मिल सकता है। बिजेन्द्र कई हिरोइनों के साथ विज्ञापनों, रियाल्टी शो और रैंप पर दिखने लगे। अब जब उनका नाम ड्रग्स के मामले में सामने आया है तब से बिजेन्द्र के बारे सिर्फ मिडिया में ही नकारात्मक खबरे आ रहीं हैं। अजीब हालत है कि सफल होने के लिए इन दोनो ही अथक श्रम किया और सफल हो जाने पर कामयाबी की रेत मुठ्ठी में से निकलते देखते रहे। लोकप्रिय विचार है कि असफलता सिर्फ दिल तक रूक जाती है परन्तु सफलता दिमाग तक चढती है। यक्ष प्रश्न है कि असफलता में संघर्ष ज्यादा मुश्किल है या कामयाबी को साधे रखना?
आनंद प्रजापति युवा हैं, उर्जावान हैं, उनके पास विजन है, उन्होने स्वंय को नगरपालिका अध्यक्ष कार्यकाल में साबित भी किया, लेकिन अपनी अनदेखी को सहन नहीं कर पाए और निर्दलीय चुनाव लड़ा। जब ऐसी बगावत होती है, उस समय चुनाव, चुनाव ना होकर रण में तब्दील हो जाता है, राजनैतिक दल के बड़े नेता कार्यकताओं को अनुशासन और समर्पण की नि:शुल्क पाठ पढाते हैं,लेकिन अपनी अवहेलना कोई सहन नहीं कर पाता। मध्य प्रदेश अध्यक्ष पद पर तोमर पदासीन हुए तो प्रभात झा के व्याख्यान में तल्खी देखी जा सकती थी। दरअसल आनंद प्रजापति अभिमन्यु की तरह चक्रव्यु भेद नहीं पाए। राजीव खंडेलवाल ने जब निर्दलीय लड़ा उस वक्त वो बेहद जनप्रिय नेता थे, लेकिन गलत समय पर गलत फैसला कर बैठे। हालांकि उन्होने अच्छे खासे वोट लिए , पर ये वोट उनके राजनैतिक जीवन को बोनस की जगह अतिक्रमण की तरह हो गये। उमा ने भाजपा छोड़ी, राजीव ने उमा का साथ पकड़ा, अब दोनो एक ही कश्ती पर सवार थे। राजनीति में ऐसी नाव में पतवार से बड़े छेद होते हैं, यह भी अकाट्य सत्य है कि वहीं से विनोद डागा के राजनैतिक सफर की शुरूआत हुई। राजीव खंडेलवाल और आनंद प्रजापति ने बिना सिम्बॉल के अच्छे खासे मत लेकर स्वंय की पार्टी को अच्छा खासा नुकसान पहुंचाया था। इसी में वो अपनी विजय निहित मान बैठे, लेकिन ये क्षणिक विजय थी दोनो को ही शायद अंदाज नहीं था कि ये इस डेमेज का कंट्रोल कितनी तेड़ी खीर है। संभवत: दोना का एक ही फ्लासफी रही होगी कि पल भर में जल जाना जिस प्रकार देर तक सुलगते रहने से बेहतर होता है, उसी प्रकार मन में क्रोध लिए रहने की अपेक्षा उसे प्रकट कर देना अच्छा है। परमात्मा और वक्त सबसे बड़े चिकित्सक हैं, राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी दोनो स्थाई नहीं होती है। राजनीति सांप सीढ़ी का खेला है जिसमें गंतव्य समीप दिखता है और अचानक सांप लील जाता है और फिर से फर्श पर आ जाते हैं, या फर्श पर अचानक सीढ़ी मिलती है और व्यक्ति अर्श पर पहुंच जाता है, नगर पालिका अध्यक्ष राजेन्द्र देशमुख से ज्यादा इस सीढ़ी की शिनाख्त भला कौन कर सकता है, और सांप की व्याख्या राजीव खंडेलवाल और आंनद से ज्यादा कौन कर सकता है।