अमर ज्योति महर्षि दयानंद सरस्वती:गुरूजी विजय आर्य
महर्षि दयानंद का निर्वाण दिवस,दिपावली पर्व :कंचन आर्य कश्यप
बैतूल। आज दिनांक 11 अक्टुबर दिन रविवार को आर्य समाज बैतूल कार्यालय में दिपावली,दयानंद सरस्वती,वेद और जीवन पर व्याख्यान माला का आयोजन किया गया। अपने उद्बोधन में गुरूजी विजय आर्य स्नेही ने कहा कि 30 अक्टुबर 1883 दीपमालिका का दिन, लगभग सांयकाल 5:30 बजे थे, प्रत्येक घर प्रकाश से जगमगाने लगा था, दूसरी तरफ राजा साहेब भिनाय की कोठी में महान दीप – ऐसा महान सहस्त्राब्दियों से बुझे दीप-वेद ज्ञान को अपनी सम्पूर्ण योग्यता और सामथ्र्य को भूमंडल पर प्रकाशित कर दिया था। कि बेरहम काल के प्रबल झोंकों से बुझ रहा था। बुझा तो वह दीप-किन्तु संसार को वेद ज्योति से प्रकाशित कर, वह अमर ज्योति जो युग-युग तक अपितु प्रलयकाल तक अपनी प्रखर रश्मिीयों से संपूर्ण विश्व को, विश्व ब्रह्मांड और विश्व मानवता को प्रकाश प्रदान करेगी।
विश्व मानव के हित में उक्त ज्योति की प्रखर और जाज्वल्यमान उदिप्त रश्मियां बखेरता रहा। इस युग पुरूष महान तपस्वी वैदिक ऋषि को हम युग-प्रर्वतक महर्षि दयानंद सरस्वती के नाम से याद करते हैं। जिन्होने यह घोषणा की कि ‘जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही कहना,लिखना और मानना सत्य कहलाता है।’ यह घोषणा उनके पूर्वाग्रह रहित होकर सत्य को स्वीकार करने तथा किसी भी विषय में पक्षपाती न होने की उनकी मनोवृति की परिचायका है। अपनी मनोवृत्ति का परिचय उन्होने आर्य समाज की स्थापना करते हुए उसके चौथे नियम की यह भाषा बनाकर प्रगट कर दिया है कि- ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडऩे में सर्वदा उदत्त रहना चाहिये’ महर्षि दयानंद सरस्वती सम्पूर्ण जीवन का अद्योपान्त और उनके ग्रंथों का अध्ययन पश्चात उनमें अपने और पराये का भेद-भाव उनके मन में था ही नहीं। वर्तमान युग के वेद वेत्ता में महर्षि दयानंद की यही विशेषता है, यही उनका ऋषित्व है और जो की वेद को संसार के किसी माप दण्ड, किसी भी विद्वान के दृष्टिकोण से नहीं अपितु वेद के ही मापदण्ड और वेद के ही दृष्टिकोण से समझा था, इसी कारण यह घोषणा करने में समर्थ हो सके कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’ एतर्थमेव ‘वेद का पढऩा-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यो पर परम धर्म बताया।
उन्होने अपने द्वारा संस्थापित संस्था आर्य समाज का एक नियम ही बना दिया कि संसार का उपकार करना इस समाज का उद्देश्य है। अपितु वेद मनुष्य मात्र के लिये है। सार्वभौम है और सार्वकालिक है तथा मत-मतान्तर के आग्रह से रहित है। वेद तो मनुष्य को मनुष्य देखना चाहता है और मनुष्यता ही संसार में सर्वजनित तत्व है। वेद में स्पष्ट शब्दों में मनुर्भव: मनुष्य बनने का निर्देश करता है। संसार का उपकार आर्य समाज की स्थापना की। जीवन भर वेद ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और अपने उत्तराधिकारी के रूप आर्य समाज को वेद आलोक प्रचार का दायित्व सौंपा। दिपावली के सांयकाल टिमटिमाते दीपकों के प्रकाश में युग प्रवर्तक, युग पुरूष संसार से विदा हो गये। संसार का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जहां उनके जीवन ज्योति की जाज्वलताओ देदीप्ता का परिचय न दे रहें हों।
इसके पश्चात इसी तारतम्य में कंचन आर्य कश्यप ने कहा कि दिपावली प्रकाश-उत्सव के रूप में अनंत काल से समाज में हर्षोउल्लास से मनाई जाती है। 30 अक्टूबर 1883 को दिपावली के शाम जब वैदिक धर्म के अनुयायी परमेश्वर की अराधना और संध्या के समय दीपक से प्रकाश करके उस प्रकाश पुंज परमेश्वर को कृतज्ञ भाव से समर्पित कर रहे थे, उसी समय महर्षि दयानंद सरस्वती जो अपनी अंतिम सांस तक परम पिता परमेश्वर की अराधना के आधार पर संसार के उपकार के लिये वेद ज्ञान-विज्ञान का प्रचार करते रहे, अपनी पुण्य आत्मा को इस नश्वर शरीर से ईश्वर-इच्छा मान कर अलग कर रहे थे। आर्य समाज की स्थापना महर्षि दयानंद सरस्वती ने 1875 में बंबई में की थी और 2 वर्ष पश्चात सन् 1877 में लाहौर में की थी।
लाहौर में जो 10 नियम आर्य समाज की आधारशिला के रूप में महर्षि स्वामी दयानंदजी ने स्वयं निर्धारित किये थे। आज तक उन्ही के आधार पर आर्य समाज और उसकी शिक्षण संस्थाऐं प्रगति पथ पर अग्रसर है। प्रात: व सांयकाल वैदिक श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ-अग्निहोत्र देव पूजा, संगतिकरण और दान के रूप में महर्षि दयानंद के उपदेशानुसार संसार में इतना प्रसिद्ध हुआ कि हर व्यक्ति कार्यक्रम आरंभ करने के पूर्व यह वैदिक यज्ञ आर्य समाज के वैदिक विद्वानों को बुलाकर अवश्य कराता है। आर्य समाज भी हर्षोल्लास से दिपावली प्रकाश पर्व मनाता है और इसके साथ ही महर्षि दयानंद सरस्वती का निर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है। सन् 1883 में दो क्रांतिकारी विचारकों की जीवनलीला समाप्त हुई।
मार्च सन् 1883 में कार्ल माक्र्स का देहान्त हुआ और अक्टुबर सन् 1883 में महर्षि दयानंद सरस्वती ईश्वर इच्छा को समर्पित होते हुये, इस नश्वर शरीर को छोडक़र इस जन्म लीला को समाप्त कर गये। स्वामी दयानंद जी ने उच्चकोटी की गणतंत्र प्रणाली आर्य समाज के माध्यम से इस देश में हजारो वर्ष के पश्चात प्रचलित की। महर्षि दयानंद सरस्वती साम्प्रदायिकता के विरूद्ध थे। मंदिरों,मठों और अन्य धर्म स्थानों के नाम पर जो अधर्म और पाखंड हो रहा था, उसके विरूद्ध महर्षि ने पुरजोर आवाज बुलंद की। वैदिक संस्कृति समानता और संगठन की संस्कृति है। निर्वाण दिवस पर सच्ची श्रद्धांजली यही होगी की वैदिक धर्म को मानने वाले वेद प्रचार का संकल्प ले और मत-मतान्तर के आधार पर प्रचलित घृणा का वातावरण समाप्त करने का प्रयास करेंगे जिससे वेद की ज्योति प्रकाशित रहे।