बैतूल। वर्तमान विसंगतियों से विदग्ध है, हमारे देश ही नहीं वरन समस्त संसार के राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन में उथल-पुथल मची है। अपनी-अपनी कु्रर आकांक्षाओं की बलिवेदी पर अमीर गरीबों की, बलवान निर्बलों की और बड़े अपने से छोटों की निर्मम बलि चढा रहें है। सारा मानव समाज सतत संघर्ष की इन क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं से ग्रस्त है। इस स्थिति से उबरने के प्रयत्न निरंतर किए जा रहें है। धर्माचार्य उपदेश देते हैं, समाज के कर्णधार ओजस्वी भाषण देते हैं और राजनेता इस ह्रासोन्मुखी स्थिति को सुधारने-सवांरने का एकमात्र उपाय है-शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक में नवीन चेतना, नवीन शक्ति पूर्ण आस्था और समर्पण भाव के समावेश का शंख फंूकना। कवि श्रीकृष्ण सरल के शब्दों में ‘शिक्षा जीवन की तैयारी, शिक्षा जीवन का प्रकाश है, शिक्षा है निर्माण चरित्र का विकास हैÓवस्तुत: शिक्षा एक दर्शन के रूप में चिंतन मूलक है, कर्म के रूप में अभ्यास मूलक और उपलब्धि के रूप में संस्कार मूलक। मानव के विकास का इतिहास शिक्षा के विकास का इतिहास है। महाकवि तुलसी ने ज्ञान के पंथ को कृपाण की धार कहा है। महात्मा गांधी के मत में बालक का सर्वतोमुखी विकास तथा बच्चों के तन-मन व आत्मा में निहित सर्वोत्तम तत्व का प्रस्फुटन शिक्षा का ध्येय है।
प्राचीन काल में शिक्षा की चिंतन धाराएं प्राकृतिक, सहज, संस्कार आधारित तथा व्यक्तित्व के समग्र विकास को बहुआयामी दृष्टि से देखकर तथा विकास हेतु प्रयास करती थी। यदि गंभीरता से समझे तो शिक्षा धीरे-धीरे एक पक्षीय विचार व्यवस्था बनती गई। आज प्रत्येक स्थिति और संदर्भ भिन्न है। शिक्षा कृत्रिम व्यवस्था में बदल गई और शासन का दायित्व बन गई। समाज ने शैनै:शैने: उससे स्वयं को अलग कर लिया। स्कूल ज्ञान प्राप्ति के साधन बने-स्तर, गुणवत्ता, परीक्षा और शिक्षाविद उपजे लेकिन एक मूल प्रश्न अनुत्तरित बना रहा, शिक्षा ने किस मनुष्य की रचना की? और आखिर करे क्या? वस्त़त: शिक्षा आज एक विराट दायित्व है, इसलिए वह केवल शासन की जिम्मेदारी नहीं बल्कि जन-जन की भागीदारी की अपेक्षा रखती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था भिन्न-भिन्न योजनाओं के माध्यम से जन शिक्षा आंदोलन के क्रियान्वयन में प्रयासरत भी है। वृहद शैक्षिक चिंतन और आधुनिकतम शैक्षिक संसाधन भी है हमारे पास। किन्तु आवश्यकता है शैक्षिक चिंतन से कम का चरित्र बदलने की, प्रत्येक संबंद्ध व्यक्ति को अपने कर्म का दायित्व समझने की। शिक्षा के समस्त रूपांतर विचार और नवाचार निष्ठायुक्त कर्म से ही संभव है। देश के हर चिंतनशील नागरिक को यह समझना होगा कि शिक्षा एक राष्ट्रीय दायित्व है। शिक्षा देश के शरीर की धमनियों में बहने वाला रक्त है जिसकी स्वस्थता शुद्धता और पवित्रता पर जितना ध्यान दिया जाएगा राष्ट्र उतना ही बलिष्ठ, शक्तिशाली एवं विकासोन्मुख रहेगा।