लेख- डॉ एमएल साहू, प्राचार्य शासकीय हाईस्कूल सूरगांव
बैतूल। बैतूल का इतिहास इस बात का साक्षी है कि काल और परिस्थितियों के थपेड़े भी इस जिले की आत्मा को पराजित नहीं कर सके। यहां की जनता ने सदैव ही विरोधी विचारधराओं को आत्मसात करने और विदेशियों के आधिपत्य से अपने को मुक्त करने का अदम्य साहस दिखाया है। स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में बैतूल के लोगों ने संघर्ष, त्याग और बलिदान की गौरवशाली परंपरा को जीवित रखा। स्वतंत्रता आंदोलन का शंखनाद 1857 की क्रांति ने किया। यह समस्या मूलक होते हुए भी राष्ट्रव्यापी था और इसने देशी-विदेशी शासकों के मन और मस्तिष्क में हलचल पैदा कर दी। कंपनी राज्य का क्राउन राज्य में विलय ही इस क्रांति की उपलब्धि है। बैतूल में होने वाले सभी आंदोलन प्राय: राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे परंपरागत आंदोलनों के समान ही थे, फिर भी जंगल सत्याग्रह व झंडा सत्याग्रह जैसे मौलिक आंदोलनों के साथा भी इस क्षेत्र का का नाम जुड़ा हुआ है। जब रावी से लेकर ताप्ती तक सारा देश1857 की क्रांति की आग में झुलस रहा था तो उसकी लपटें बैतूल क्षेत्र में भी गतिमान हो रहीं थी। 1857 की आग में यदि आगरा, मेरठ,लखनऊ, कानपुर, झांसी, ग्वालियर और दिल्ली जले है तो बैतूल भी अपने आपको इस महाज्वाला से अछूता न रख सका। 1857 के विद्रोह से प्रेरित मुलताई में अमर शहीद तात्या टोपे का संघर्ष तथा बैतूल बाजार, टिकारी और असीरगढ़ क्षेत्र में पटेल बंधुओं के सशस्त्र संघर्ष से जिले में आजादी की लड़ाई प्रारंभ हुई। पनजागरण काल के आर्य समाजी आंदोलन ने बैतूल व चिचोली को प्रभावित किया और कालान्तर में चिचोली आर्य समाजियों का केन्द्र बन गया तथा समाज सुधार का महत्वपूर्ण कार्य प्रारंभ हुआ।
चिखलार से जंगल सत्याग्रह का प्रारंभ अगस्त 1930 में हुआ। सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में गठित अग्रगामी दल से प्रेरित होकर मुलताई में जिला फारवर्ड ब्लाक का गठन हुआ और बैतूल क्षेत्र आजाद हिन्द सेना के समर्थकों का प्रमुख केन्द्र बन गया। बैतूल जिले में स्वतंत्रताा संग्राम में 14 सत्याग्राही कोवासिंह सातलदेही, रामू गोंड चिखलार, मकडू गोंड जम्बाड़ा, जिर्रा गोंड जम्बाड़ा, केला किरार, उदय किरार नाहिया, महादेव तेली प्रभातपट्टन, बिरसा गोंड घोड़ाडोंगरी, गोलमन सेठ चिचोली, मुंशी गोंड बेहडी, पन्ना सिंह महेन्द्रवाड़ी, टाटरू गोंड भैंसदेही, लक्खू गोंड विजयग्राम, मनोहरराव पौनीकर मुलताई शहीद हुए। जिनमें से 9 आदिवासी सत्याग्रही थे। इन देशभक्त शहीदों के बलिदानों की अमर कहानी की एक ऐसी गाथा है, जो न कभी भुलाई जा सकती है और न कभी पुरानी पड़ सकती है। यहां के आदिवासियों ने हिन्दुस्तान से अंग्रेजों का पलायन करा देने में सहयोग ही नहीं दिया, अपितु संग्राम को नेतृत्व भी प्रदान किया और शहीद हुए। बैतूल के आदिवासियों द्वारा चलाये गये आंदोलन का एक कारण अंग्रेजों का अत्याचार तो था ही, परन्तु मौलिक रूप से विदेशी शासन को किसी भी रूप में देखना नहीं चाहते थे तथा भारत वर्ष से उन्हें समाप्त कर देने के लिए संघर्ष कर रहे थे। हिन्दुस्तान में आदिवासियों द्वारा किया गया ऐसा आंदोलन बैतूल के अलावा कही भी नहीं हुए। संथालो, रम्पा और मुण्डा आदिवासियों न अपनी सत्ता स्थापित करने, जागीरदारों और मनसबदारों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष किया था, पूरे हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने के लिए नहीं। इतिहास में सौभाग्य से कुछ प्रमुख व्यक्ति और प्रदेश स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के कारण अंकित किये गये तो यह सहज है, किन्तु यही एक एकान्तिक सत्य नहीं है। भारत के स्वतंत्रता के पटल को कुछ व्यक्तियों तथा प्रदेशों के नामों में समेटा नहीं जा सकता। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बैतूल की भूमिका अन्य किसी जिले से किसी भी तरह कम नहीं है। इस जिले के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का विहंगम अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि राष्ट्रीय भावना समग्र मानवता की भावना है। स्वतंत्रता सभी को प्रिय है। स्वतंत्रता और समानता के खम्बों पर ही सामाजिक संतुलन टिका है। स्वाधीनता संग्राम के इन सब वीर सैनिकों के समर्पण, निष्ठा, त्याग और बलिदान से ही अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजो की गुलामी की जंजीरो को तोडक़र स्वतंत्र हुआ। ‘स्वाधीनता की 67 वर्षगांठ पर आजादी की लड़ाई के लिए जूझ मरने वाले उन सारे ज्ञात-अज्ञात उल्लेखित-अनुल्लेखित शहीदों को शत-शत नमन है। जिन्होने स्वतंत्रता संघर्ष में भूख और प्यास की चिंता किये बिना नि:स्वार्थ भावना से अपना सर्वस्व भारत माता के चरणों में समर्पित किया और असहनीय यातनाएं भोगी बिना आत्म बलिदानों के, कब किसने स्वतन्त्रता पायी, लाखों भेंट हुए माता के चरणों में तब वह आयी।